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शांति हमारे भीतर है

महाराजी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5770
आईएसबीएन :81-288-1685-3

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परिचित होइए जीवन की वास्तविकता से...

Shanti hamare bheetar hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

न सुख बाहर है, न शांति बाहर है। सुख भी
हमारे अंदर है और शांति भी हमारे अंदर है।
लोग सोचते हैं कि शांति प्राप्त करने के लिए
अपने परिवार को त्यागना पड़ेगा। मैं ऐसा नहीं
कहता। मैं नहीं कहता कि अपनी नौकरी छोड़ो।
मैं नहीं कहता कि सिर मुड़ाकर किसी पर्वत के
ऊपर चढ़ जाओ, वहां तुम्हें भगवान मिलेंगे।
नहीं, ऐसी चीज की मैं चर्चा कर रहा हूं कि तुम अपने परिवार में रहकर अपनी स्थिति में
रहकर, उस ज्ञान के द्वारा परम शांति, परमानंद और सुख का अनुभव कर सकते हो।

भूमिका


मनुष्य जीवन आंतकित जीवन शक्ति का परम चरम उत्कर्ष है। वह निर्माण के उन सारे स्रोत्रों का भागीदार है, जो इस विराट विश्व में धरती से लेकर आसमान तक निरंतर होते रहेंगे। होना आवश्यक है, क्योंकि यह स्पष्ट करता है कि हमारी भीतरी चेतना बराबर जागृत है और जागरण के अगले चरण की ओर बढ़ रही है।

सावधानी से देखिए, हमारी जीवन प्रक्रिया अत्यन्त सहज और साध्यबोध है। वह मनोरंजन के सुगम और समतल क्षेत्रों में से ऐसे जन्म पा लेती है और जन्म के बाद प्रेम भाजन बनती है। यहां तक तो सब कुछ सहज है लेकिन जैसे-जैसे हम विकास की ओर बढ़ते हैं, संघर्ष के पथरीले और कंटीले रास्ते बराबर निकालना शुरू कर देते हैं। उन्हें रोकना बहुत मुश्किल है और इसलिए अपने आत्मबोध और आत्मसाधनों के सहारे हमें संघर्ष के रास्ते स्वीकारने पड़ते हैं। अर्थ हुआ कि सहज अवतरण अंतत: विकास के लिए संघर्षरत होने के लिए बाध्य है। इसी प्रक्रिया में मनुष्य को अपनी क्षमता और क्रियाशीलता का परिचय मिलता है। हम जितना ज्यादा विकास करेंगे उतनी ही हमारी शक्तियों को जागरूक होना पड़ेगा। बहुत ध्यान से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि हमारे संघर्ष के रास्ते कितने बीहड़ हैं और उन्हें पार करने के लिए कितना अधिक श्रम करना पड़ता है। यही श्रम एक ओर हमें शक्ति देता है और दूसरी ओर चुनौती भी।

साध्य नहीं है वह सब
सहज लगे जो प्रतिरूप
खुले मोर पंखों सा फैला है
जिंदगी का छोर-अछोर

जीवन के इन गिरते उठते क्षणों को जितना संभालकर चलेंगे, उतनी ही हमारी प्रगतिशीलता तीव्र होगी। हमारे भीतर उठने वाले कई व्यर्थ के प्रश्न अपने-आप हल होते जाएंगे।

एक उदाहरण यदि लें तो यह है कि सब कुछ हमारी उस खोज-दृष्टि पर निर्भर करता है, जिसकी शक्ति को हम नहीं पहचानते। यदि हम पहचान लें, तो जो कुछ बेचैनी और अशांति हमें मिलती है, वह कहीं बाहर से नहीं आती, असल में वह हमारे भीतर बदलने वाली शांति-प्रक्रिया है। संभवत: इस पुस्तक के लेखक ‘प्रेम रावत’ ने इसी को पहचान कर रहा है कि ‘शांति तो हमारे भीतर है, हम उसे बाहर खोजने क्यों जाते हैं।’ इसी तरह यह भी कहा है कि ‘संघर्ष भले ही हमारी जिन्दगी में हो, स्वर्ग भी हमारे अंदर ही है।’ उसके लिए वेद-पाठ और अन्य धर्म-ग्रन्थों की जरूरत नहीं है।

प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहीत लेखों को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि प्रेम रावत को जिंदगी का मूल तत्व मिल गया है और इसलिए वे ये कहने में समर्थ हैं कि सुख भीतर है, शांति भी हमारे भीतर है, विवेक भी वहीं से पैदा होता है। बहरहाल, मनुष्य इसलिए दूसरे प्राणियों से श्रेष्ठ है क्योंकि उसमें चेतन क्षमता है और चिंतन के भीतर प्रवेश कर उससे भी सूक्ष्म चेतना को पा लेता है। यही तो वरदान है, यही साधना है और इसी की खोज में युगों-युगों से मनुष्य जीवन लगा हुआ है। यह तो ठीक है लेकिन मार्ग बहुत सरल नहीं है इसलिए हमें एक मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है। वही निर्देशक हमारा ‘गुरु’ है। प्रेम रावत संघर्षमय रास्तों से जाकर जो कुछ अर्जित किया है, सहज ही वो सबको बांटते चलते हैं। यह बांटा जाने वाला ज्ञान वह धन-सम्पदा नहीं है, जो एक न एक दिन दीमक का भक्षण बन सकता है। वह तो इतना उदार है कि कि ज्यों बांटे त्यों बढ़े, बिन बांटे घट जाए।

प्रेम रावत की चार पुस्तकों के बारे में मैं पाठकों को बता चुका हूं। इस पुस्तक के माध्यम से बताना चाहूंगा कि वे उदार-चरित्र व्यक्ति हैं और ज्ञान को बांटते हुए चलते हैं। तो इस उपहार को पाने के लिए आप भी आगे आइए और बिना श्रम के सहज मिलने वाली शांति के ऐसे ग्राहक बनिए जिसके बदले धन सम्पदा नहीं खर्च करनी है। अंदर बिखरी हुई सम्पत्ति को समेटकर आत्मसात करना है।

राजेन्द्र अवस्थी
लेखक, सम्पादक व दार्शनिक

खोजो : शांति हमारे भीतर है


इस संसार के अंदर असली कमी क्या है ? तुम्हारे जीवन में किस चीज की कमी है ? भगवान ने जो दिया, वह दिया। तुम उसको किस रूप में इस्तेमाल करते हो, यह तुम पर निर्भर है। ठीक ढंग से इस्तेमाल करोगे तो आनंद मिलेगा। गलत ढंग से इस्तेमाल करोगे तो जीवन में दुख होगा। यह बिलकुल स्पष्ट बात है !

जैसे अगर मुझे प्यास लगी है, मैं कुएं के पास जाऊं, कुएं में बाल्टी डालूं, पानी निकालूं, गिलास में डालूं और अपने मुंह में नहीं ले जाऊं, बल्कि गिलास को एकफुट दूर रखूं, तो क्या मेरी प्यास बुझ जाएगी ? मैंने सब कुछ तो किया। बाल्टी पर रस्सी बाँधी, बाल्टी को कुएं में फेंका, पानी निकाला, पानी को गिलास में भी डाला और होठों के पास तक ले गया, परन्तु अंतर एक फुट का है। मैंने गिलास दूर रखा तो क्या होगा ? पानी मेरे मुँह में नहीं जाएगा, मेरी बाँहें भींग जाएंगी, अगर कोई मेरे बगल में खड़ा है, तो हो सकता है वह भी भीग जाए, पर प्यास नहीं बुझेगी।

अगर मैं अपनी प्यास को बुझाना चाहता हूं, तो मुझे किस चीज़ की जरूरत है ? जरूरत है कि वह पानी मेरे मुंह में जाए और जब पानी मेरे मुंह में जाएगा, तब जाकर मेरी प्यास बुझेगी। उससे पहले नहीं। कबीरदास जी का एक भजन है। मुझे बड़ा अच्छा लगता है, क्योंकि उसमें उन्होंने कहा है :

पानी में मीन पियासी, मोहे सुनि सुनि आवे हाँसी।

पहले एक बात स्पष्ट हो जाए कि वे किस मीन की बात कर रहे हैं ? कौन है वह मीन ? कहां है वह मीन ? तुम ही हो वह मीन। यह तुम्हारी बात हो रही है। क्या तुम कभी उदास नहीं हुए हो अपनी जिंदगी में ?

मृग-नाभि में है कस्तूरी, बन बन फिरत उदासी।।


वह मृग तुम हो यह संसार है वन। तुम्हारे अंदर ही वह कस्तूरी है। मृग वन में फिरता है चेहरा लटकाए। क्या होगा ? क्या हाल होगा मेरा ? क्या करूंगा मैं ? चिंता लगी रहती है। सबको चिंता सताती रहती है। मनुष्य को किस-किस चीज की चिन्ता है ?

आत्मज्ञान बिना नर भटके, क्या मथुरा क्या काशी।

क्या तुम्हें आत्मा का ज्ञान है ? दुनिया के लोग आत्मज्ञान को तो रखते हैं अलग और कहते हैं कि आत्मा क्या है जी ? बात आत्मा की नहीं है। बात है आत्मज्ञान की, क्योंकि बिना ज्ञान हुए, तुम समझ नहीं पाओगे कि तुम कौन हो ? जो तुम अपने आपको समझते हो, तुम वह नहीं हो। तुम क्या हो ? इसको समझने के लिए, तुम्हारे अंदर स्थित जो चीज है, जब तक तुम उसको नहीं समझोगे, तब तक समझ नहीं पाओगे कि यह क्या है।


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